यहाँ धागा बांधने से पूरी होती है मन्नते-

*यहाँ धागा बांधने से पूरी होती है मन्नते -*
 *ओजस्वी मन:-* शुकतार मे स्थित शुकधाम पीठ के प्रांगण में एक विशाल एवं पुरातन वट वृक्ष स्थित है।कहा जाता है कि इसी वट वृक्ष के नीचे बैठकर शुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत कथामृत का पान कराया था जिसके कारण शापित राजा परीक्षित शाप से मुक्त होकर प्रभु के धाम को प्राप्त कर पाए थे।
इस वटवृक्ष पर प्रत्येक वर्ष लाखो श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु धागा बांधते है।इसी वटवृक्ष पर भगवान गणेश जी के मुख की आकृति स्वयं प्रकट हुई है जिसे देखकर भक्त आश्चर्यचकित रह जाते है और श्रद्धा से नमन करने लगते है।
        यहां के श्रद्धालु एवं वरिष्ठ समाजसेवी  देवराज पंवार ने शुकतीर्थ के इतिहास को बताते हुए कहा कि एक समय जब वीर अभिमन्यु के पुत्र एवं अर्जुन के पौत्र महाराजा परीक्षित सम्पूर्ण पृथ्वी का एकछत्र शासन कर रहे थे,उस समय कलयुग का प्रादुर्भाव हो चुका था।
      एक दिन राजा परीक्षित धनुष बाण लेकर शिकार करने वन में गये हुए थे।वन में एक मृग के पीछे पीछे दौड़ते हुए वे बहुत दूर चले गये।बहुत थकने व भूख प्यास से व्याकुल होने पर उन्होंने लौटते समय मार्ग में स्थित श्री शमीक ऋषि के आश्रम में जल पीने की इच्छा से प्रवेश किया।
     ध्यानावस्थित मुनि शमीक को देखकर राजा ने ऐसी ही अवस्था मे उनसे पीने के लिये जल मांगा।ध्यानावस्थित मुनि से कोई जवाब न मिलने पर,इसे अपना अपमान समझकर राजा क्रोधित हो गये।शास्त्रों के अनुसार क्रोध अनर्थ का कारण होता है।
     सिर पर स्वर्ण मुकुट होने से उसके कलयुगी प्रभाव के कारण राजा की बुद्धि विचलित हो गयी थी।उन्हें अच्छे बुरे का विवेक नही रहा था।कहा गया है कि जब नाश आता है तो पहले विवेक मर जाता है।
   भूख प्यास के कष्ट को सहन न कर पाने के कारण एकाएक राजा को ऋषि शमीक के प्रति ईर्ष्या और क्रोध उत्पन्न हो गया।उनके जीवन मे इस प्रकार का यह पहला ही अवसर था।अब वे ऐसे स्थान पर रहना अनुचित समझकर लौटने को उद्यत हुए।वहाँ से लौटते समय राजा ने पास ही एक मरा सांप पड़ा हुआ देखा।स्वर्ण मुकुट के प्रभाव एवं कलयुगी बुद्धि होने से उनके मन मे अनर्थकारी दूषित विचार उठा।उन्होंने अपने धनुष के अग्रभाग से  वह मरा सांप उठाकर महर्षि शमीक के गले मे डाल दिया और अपनी राजधानी को लौट गये।
       महर्षि शमीक के तेजस्वी पुत्र श्रृंगी ऋषि जो अभी अल्पायु में ही थे,वे दूसरे ऋषि कुमारो के साथ कौशिकी नदी तट पर खेल रहे थे।जब कुछ बालको से अपने पिता शमीक का राजा द्वारा अपमानित होने का समाचार उन्होंने सुना तो उन्हें बहुत क्रोध आया।उन्होंने अपने योगबल से सम्पूर्ण हाल मालूम कर लिया और क्रोध से उनके नेत्र लाल हो गये।तब ऋषि कुमार श्रृंगी ने कौशिकी नदी के जल से आचमन करके राजा को श्राप दे दिया।अपने वाणी रूपी वज्र का प्रहार करते हुए ऋषि कुमार ने इस प्रकार कहा----
   इति लाँघितमर्यादम तक्षकः सप्तमे$हनि।
  दक्ष्यति स्म कुलांगगारम चोदितो में ततद्रुह्म।।
     अर्थात कुलांगार राजा ने मेरे पिता का अपमान करके मर्यादा का उल्लंघन किया है।इसलिये आज से सातवें दिन मेरी प्रेरणा से तक्षक नाग उसे डस लेगा,जिससे वह मर जायेगा।
     इसके पश्चात वह ऋषि कुमार श्रृंगी अपने आश्रम पर आया और पिता के गले में मरा सांप देखकर वह दुखी होकर जोर जोर से रोने लगा।अंगिरा पुत्र महर्षि शमीक ने अपने पुत्र का रोना चिल्लाना सुना तो उनकी समाधि भंग हो गयी।जब उन्होंने धीरे धीरे आंख खोली तो उन्होंने अपने गले मे मरा सर्प पड़ा देखा।उस सर्प को गले से बाहर फेंककर महर्षि ने अपने पुत्र से पूछा -वत्स कस्माद्धि रोदिशि।बेटा तू क्यो रो रहा है? क्या किसी ने तुम्हारा अपकार किया है?उनके इस प्रकार पूछने पर उस बालक ने सरल स्वभाव से सब वृतांत बतला दिया।ब्रह्मऋषि शमीक जी राजा को श्राप की बात सुनकर बडे दुखी हुए।उन्होंने अपने पुत्र के श्राप की प्रशंसा नही की अपितु उसके शाप की निंदा ही की।उनकी दृष्टि में परीक्षित शाप के योग्य नही थे।
     वन से राजधानी में अपने महल मे पहुंचने पर राजा परीक्षित ने स्वयं जब अपना स्वर्ण मुकुट शीश से उतारा तब उन्हें अपनी की हुई गलती का आभास हुआ।उन्हें उस निंदनीय कर्म के लिये बड़ा पश्चाताप होने लगा।वे बहुत उदास हो गये और अपने को धिक्कारते हुए सोचने लगे कि मैंने निरपराध तथा अपना तेज छिपाए हुए उस ऋषि के साथ अनार्य और नीच पुरुषों के समान बड़ा घृणित व्यवहार किया है।
    महाराजा परीक्षित एकांत में बैठे हुए पश्चाताप कर रहे थे कि इतने में ही शमीक ऋषि का भेजा हुआ गौरमुख नाम का एक शिष्य आया और उसने उनको श्रृंगी ऋषि के शाप संबंधी सब समाचार सुनाया।उसने राजा को बतलाया कि आज से सातवें दिन तक्षक सर्प के काटने से तुम्हारी मृत्यु होगी।यह सुनकर राजा ने उस श्राप को वरदान समझा।उन्हें उस तक्षक का डसना बहुत अच्छा मालूम हुआ।राजा उसी समय सम्पूर्ण राज्य का भार अपने ज्येष्ठ पुत्र जनमेजय को सौंपकर मोक्ष प्राप्ति के लिये भागीरथी गंगा के दक्षिण तट पर उत्तर दिशा की ओर नंगे पैर पैदल चल पड़े।
राजा राजधानी से काफी दूर एक वट वृक्ष (जो आज भी शुकतार में स्थित है) के नीचे भगवान श्री कृष्ण भगवान का ध्यान करके यह संकल्प लेकर बैठ गये कि अब मैं मरणकाल पर्यंत यहीं रहूंगा।
      उस दौरान भगवान की कृपा से किसी से कोई इच्छा न रखने वाले श्री शुकदेव जी महाराज देवयोग से वहाँ प्रकट हुए।उनकी अवस्था मात्र 16 वर्ष की थी।
   उनको विशेष रूप से आदर सत्कार करने के बाद राजा परीक्षित ने अपने मन की शंकाओं को शुकदेव जी के समक्ष रखा और श्री शुकदेवजी महाराज ने श्रीमद्भागवत कथा कहकर राजा को मोक्ष प्रदान किया तथा कलयुगी प्राणियों का कल्याण किया ।
     श्राप से ठीक सातवें दिन तक्षक ने राजा परीक्षित को डस लिया।किंतु उस समय राजा ब्रह्मलीन हो चुके थे।अतः वे ब्रह्मलोक को प्रस्थान कर गये।