भागवत रूपी ज्ञान गंगा का उद्गम स्थल है शुकतीर्थ

*भागवत रूपी ज्ञान गंगा का उद्गम स्थल है शुकतीर्थ*
ओजस्वी मन:-विश्व के आध्यात्मिक साहित्य की अमर रचना है श्रीमद्भागवत।जिस प्रकार गंगोत्री गंगा का उद्गम स्थल है,उसी प्रकार शुकतीर्थ भी भागवत ज्ञान गंगा का उद्गम स्थल है।शुकतीर्थ,भागवत ज्ञान गंगा और भागीरथी गंगा का संगम स्थल है।इसलिये यह भारत के 68 तीर्थो में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ माना गया है।
  ' श्रीमद्भागवते महामुनिकृते कि वा परेरीश्वरः।'
     अर्थात महामुनि श्री वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत को जानने के बाद अन्य किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन है?
          मान्यता है कि देवर्षि नारद के उद्बोधन से व्यास जी ने श्रीमद्भागवत रूपी इस अनुपम ग्रंथ का निर्माण किया था।जब भगवान वेदव्यास जी वेदों और उपनिषदों की रचना करने के बाद भी संतुष्ट न हुए और देवर्षि नारद ने उन्हें दुखी देखा ,तब उन्होंने भगवान श्री कृष्ण लीला,महिमा तथा उनके निर्मल यश के गुणगान से युक्त इस भागवत ग्रंथ की रचना के लिये भगवान वेदव्यास जी को प्रेरणा दी थी।यह वेदरूपी कल्पवृक्ष का रसमय फल है।इसमें विद्वानों के लिये परम वैदुष्य एवं मुमुक्षुओं के लिये परम मोक्ष साधन तथा भगवतभक्तो के लिये विशुद्ध भक्ति का बड़ा ही सुंदर निरूपण है।मानवता का महान आदर्श इसमें कूट कूट कर भरा है।इसका दृष्टिकोण समन्वयात्मक है,जिसने किसी सम्प्रदाय के विरुद्ध न होकर सबको एक सनातन सत्य से बांध दिया है।साथ ही यह पक्षपात रहित ग्रंथ है,जिसमें यथार्थता का कहीं हनन नहीं हुआ है।ज्ञान,भक्ति और वैराग्य की तो मानो यह त्रिवेणी ही है,जिसमें स्नान करके जीव तीनो तापो से रहित हो जाता है।परमहंस वृत्ति से लेकर जनसाधारण की धार्मिकता का परिचय इसके अवलोकन से मिलता है।इसमें सर्वपापहारी स्वयं भगवान श्री नारायण का ही संकीर्तन हुआ है।भगवान के विराट स्वरूप का वर्णन एवं अवतारों का चरित्र चित्रण बड़ी ही मधुरता के साथ किया गया है।भगवान श्री कृष्ण की परात्यपरता एवं उनकी दिव्य लीलाओं का विशद वर्णन इस ग्रंथ की अपूर्व निधि है।इस पुराण में परम रहस्यमय अत्यंत गोपनीय ब्रह्मतत्त्व का वर्णन हुआ है।उस ब्रह्म में ही इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की प्रतीति होती है।इस पुराण में उसी परम तत्व का अनुभावन ज्ञान  और उसकी प्राप्ति के साधनों का स्पष्ट निर्देश है।इसमें 18000 श्लोक है।
       जिस प्रकार नदियों में गंगा, देवताओं में विष्णु और  वैष्णवो में शंकर भगवान सबसे उत्तम हैं, उसी प्रकार पुराणों में श्रीमद्भागवत पुराण सर्वश्रेष्ठ है।जैसे सम्पूर्ण तीर्थो में काशी सबसे महान है,वैसे ही सब पुराणों में श्रीमद्भागवत का पद सबसे ऊंचा माना गया है।यह पुराण दोषरहित अत्यंत निर्मल ग्रंथ है।इसमें जीवनमुक्त परमहंसों के सर्वोत्तम ,अद्वितीय एवं बहुत ही विशुद्ध ज्ञान का वर्णन किया गया है।
    इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें ज्ञान वैराग्य और भक्ति के सहित कर्म त्याग का निरूपण अर्थात नैष्कर्म्य (संचित एवं क्रियमाण)कर्मो की आत्यंतिक निवृत्ति के प्रति जैसे ज्ञान का कारण है वैसे ही वैराग्य एवं भक्ति भाव भी कारण है।भक्तिभाव से जो इसका श्रवण,पठन एवं मनन करता है,उसे भगवान की भक्ति स्वतः प्राप्त हो जाती है और वह मोक्ष पद को प्राप्त करता है।
  कस्मै येन विभासितो अयंतुलो ज्ञानप्रदीप: पूरा,
     तद्रूपेण च नारदाय मुनये कृष्णाय तदरूपिण।
    योगिन्द्राय तदात्मनाथ भगवदराताय करुंयत-
    स्तच्छुद्धम विमलं विशोकममृतम सत्यं परम धीमहि।।भाग0 12/13/16-17.
      अर्थात भगवान नारायण ने सबसे पहले इस अतुलित ज्ञान प्रदीप को ब्रह्मा जी के समक्ष प्रकट किया।उन्होंने ही ब्रह्मा के रूप में देवर्षि नारद जी को उपदेश दिया और नारद जी के रूप में भगवान श्री कृष्ण द्वैपायन (वेदव्यास जी) को व्यास के रूप में योगीन्द्र शुकदेव जी को शुकदेव जी के रूप में अत्यंत कृपा करके राजा परीक्षित को उपदेश दिया था।उस परम शुद्ध ,निर्मल एवं अमृत स्वरूप परम सत्य प्रभु का हम सब ध्यान करते है।
     जिस समय शुकतार मे यह श्रीमद्भागवत कथा शुरू करने के लिये श्री शुकदेव जी महाराज आसन पर विराजमान हुए उस समय--
   'सुधाकुंभम ग्रहीतवैव देवास्तत्र समागमन"
     देवता अमृत का कलश लेकर यहाँ पधारे थे।उन्होंने श्री शुकदेव जी से कहा कि स्वर्ग का यह अमृत कलश हम राजा को देकर इसके बदले में यह अमृत कथा प्राप्त करना चाहते है।श्री शुकदेव जी ने हंसकर राजा से पूछा कि स्वर्ग का अमृत पीना चाहते हो अथवा कथामृत?इस पर राजा ने श्री शुकदेव जी से दोनों का अलग अलग लाभ पूछा।तब श्री शुकदेव जी ने कहा कि स्वर्ग का अमृत पीने से सुख तो मिलता है परंतु वह सुख दुख मिश्रित होता है ,स्वर्ग का अमृत पीने से पापो का क्षय नही होता ,परंतु कथामृत पीने से पापो का नाश हो जाता है।कांच और मणि की क्या तुलना? यह जानकर परीक्षित ने कथामृत पान की इच्छा ही की थी और शुकदेव जी ने देवताओं को अमृत कलश (समुद्र मंथन से निकला हुआ चौदहवाँ रत्न ) के बदले कथामृत नही दिया था।श्री शुकदेवजी और परीक्षित से संवादरूप श्रीमद्भागवत कथा ही शुकस्थल (शुकतार)की सबसे बड़ी विशेषता है।वास्तव में देखा जाये तो यह भगवान की प्राकट्य भूमि है और इसलिये यह स्थान भगीरथी और भागवत दोनों का संगम तीर्थ है,जो श्री शुकदेव जी की अपार करुणा से हम लोगो को प्राप्त हुआ है।
    अब तक भागवत की लगभग सैकड़ो टीकाओं का प्रकाशन हो चुका है,जो प्रायः संस्कृत में लिखी गयी है।इन सबमे श्रीधर स्वामी द्वारा लिखित "भावार्थ दीपिका" का विशेष महत्व है।वैसे " विधावतां भागवते परीक्षा" इस उक्ति के अनुसार इसके समझने में सर्वसाधारण की गति नही है।तथापि विद्वान वक्ता के समागम से जिज्ञासु जन यथेष्ट लाभ उठा सकते है।अट्ठारह हजार श्लोकों से परिपूर्ण इस ग्रंथ को कम से कम सात दिन विधिपूर्वक सुनने का नियम है, लेकिन जो लोग संसार की मर्यादाओं से अलग है, ऐसे रसिक संत इसका नित्य ही आस्वादन करते हैं।जिस तरह का आनंद वन में तपस्या करने वाले संत को होता है,वैसा ही आनंद घर मे बैठकर पूर्ण श्रद्धा,भक्ति और प्रेम से कथा श्रवण करने वाले भक्त को प्राप्त होता है।इन उपरोक्त कारणों के आधार पर ही यह स्पष्ट होता है कि --
    तेनेयं वाङ्गमयि मूर्ति: प्रत्यक्षा वर्तते हरे:।
     सेवनाच्छ्रवनातपाठात दर्शनात पापनाशिनी।।
      अर्थात यह भागवत हरि की अर्थात सत चित आनंद स्वरूप श्रीकृष्ण चंद्र भगवान की साक्षात मूर्ति है।इसलिए भगवद स्वरूप इस भागवत के सेवन, श्रवण,पाठ तथा दर्शन से पापो का विनाश हो जाता है।ज्ञान और वैराग्य ,जो मनुष्यो के अंदर सुशुप्तावस्था में पड़े रहते है,इस कथा के श्रवण से सात ही दिन में जाग्रत हो उठते है।इनके जागृत होने से भक्ति रस पैदा होता है।जो मनुष्यो को भगवान से मिलाता है।जिसका मन भगवान के रंग में रंग गया ,उसके लिये सर्वत्र मुक्ति है।अतः श्रीमद्भागवत मोक्ष देने वाली अमर कथा है।जो श्रद्धा भक्तिपूर्वक इसको सुनता है वह अमर हो जाता है।भागवत की परंपरा निम्नलिखित है--
    श्रीनारायणजी
     श्रीब्रह्माजी
       श्रीनारदजी
       श्रीवेदव्यास जी
        श्री शुकदेवजी
         राजा परीक्षित जी