*चुनौतीपूर्ण वक्त,* *संकट में अस्तित्व* *ओजस्वी मन:-*

*चुनौतीपूर्ण वक्त,* 
                *संकट में अस्तित्व*
 *ओजस्वी मन:-*
                        बेहद कठिन दौर से गुजर रही कांग्रेस इस समय अस्तित्व के संकट से जूझ रही है।70 साल तक देश की बागडौर संभालने वाली पार्टी आज खुद चुनौतीपूर्ण वक्त में खुद को साबित करने के लिये जतन कर रही है।यह समय का ही फेर है कि एक समय पूरे देश मे हर तरफ कांग्रेस का ही जलवा था और आज वही कांग्रेस देश के 2-4 राज्यो में ही सिमटकर रह गयी है।इस कठिन समय से उबरने के लिये कांग्रेस को अभी वक्त लग सकता है।
         काफी सोच-विचार और लंबे वक्त के मंथन के बाद कांग्रेस की कमान राहुल गांधी को सौंपी गयी थी।लेकिन लगता है कि राहुल गांधी बिना तैयारी के ही मैदान में उतर गये।क्योंकि उनके अध्यक्ष बनने के बाद भी कांग्रेस को कोई संजीवनी नही मिल पायी और उनके नेतृत्व में कांग्रेस को केवल निराशा ही हाथ लगी।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विराट व्यक्तित्व और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति के आगे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कांग्रेस को उबार पाने में सक्षम न हो सके।
     लोकसभा चुनाव 2019 में कांग्रेस पार्टी को अपने अध्यक्ष राहुल गांधी से काफी उम्मीदें थी।लेकिन चुनाव परिणाम आया तो वे सारी उम्मीदें धरी रह गयी।कांग्रेस पार्टी के लिये चुनाव परिणाम कुछ इस कदर भयावह आया कि पार्टी मात्र 52 सीटो पर ही सिमटकर रह गयी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा एक बडी लहर के साथ अपने दम पर 303 सीटे लेकर एक बार पुनः सत्तारूढ़ हो गयी।
      कांग्रेस को मिली इस बड़ी पराजय के कई कारण मानते हुए चुनावी पंडित कहते हैं कि राहुल गांधी अपने मे सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास तो कर रहे हैं लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री मोदी जैसे विराट व्यक्तित्व को टक्कर देने के लिये बहुत संघर्ष करना पड़ेगा।प्रधानमंत्री मोदी अपनी पहली सरकार में देश मे एक सकारात्मक माहौल निर्मित कर एक विकासवादी एवं राष्ट्रवादी नेता के रूप में विराट छवि बनाने में कामयाब हुए हैं तो वहीं अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा संगठन अत्यधिक मजबूत हुआ है।लेकिन देश मे कांग्रेस राष्ट्रवाद के मुद्दे पर बेहतर छवि नही बना सकी और कांग्रेस संगठन भी बिखराव के कगार पर है।दूसरा राहुल गांधी के पास टिकाऊ बुनियादी राजनीतिक टीम का अभाव है।वे अलग अलग लोगो से सलाह करते है।एक दिन अगर वे अहमद पटेल और रणदीप सुरजेवाला की बात सुनते हैं तो अगले दिन के.सी वेणुगोपाल और राजीव सातव के सुझावों के मुताबिक चलने लगते हैं।एक दिन अगर पार्टी बालाकोट एयर स्ट्राइक पर सरकार के साथ खड़ी दिखाई देती है तो अगले दिन वह हमले की प्रामाणिकता को लेकर सवाल उठाने लगती है।राहुल ने राफेल सौदे में भ्रष्टाचार को लेकर मोदी को निशाना बनाया।यह इतना पेचीदा था कि ग्रामीण वोटरों में कोई अपील पैदा नहीं कर पाया।मोदी की सबसे बड़ी ताकत भ्रष्टाचार से ऊपर होने की छवि पर हमला करना पलटकर उनके लिये मारक साबित हुआ।
        कांग्रेस इस कदर हाशिये पर चली गयी कि बीते पांच साल में उत्तर प्रदेश ,पश्चिम बंगाल,बिहार,तमिलनाडु , आंध्रप्रदेश ,और तेलंगाना सरीखे बड़े राज्यो में जहां कांग्रेस तकरीबन खत्म हो चुकी है,पार्टी संगठन को नये सिरे से खड़ा करने की कोई कोशिश दिखाई नही दी।इन राज्यो की 243 सीटों पर कांग्रेस हाशिये की खिलाड़ी बन गयी।यहां तक कि जिन राज्यो में पार्टी मजबूत है-मध्य प्रदेश, गुजरात, असम और उत्तराखंड -मजबूत स्थानीय नेतृत्व विकसित करने की कोई कोशिश नही है।केवल राजस्थान में सचिन पायलट,महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण, और कर्नाटक में सिद्धरमैया को ही खुली छूट दी गयी है,लेकिन वे भी आंतरिक कलह से नतीजे नही दे पा रहे हैं।राहुल ने कई चकराने वाली नियुक्तियां की ,जिनके उल्टे नतीजे हुए।हरीश रावत को असम सरीखे पेचीदा राज्य का प्रभारी बना दिया गया,जबकि रावत का पूरा ध्यान उत्तराखंड में ही बना रहा।गुजरात के तजुर्बेकार सिपाही शक्ति सिंह गोहिल को बिहार का प्रभार दे दिया गया जहां पार्टी गठबंधन की छोटी भागीदार है।कर्नाटक में मुश्किल लड़ाई लड़ रहे मल्लिकार्जुन खड़गे को महाराष्ट्र का प्रभारी बना दिया।अनुभवहीन गौरव गोगोई को पश्चिम बंगाल सरीखा बड़ा राज्य दे दिया।
     वहीं दूसरी ओर कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम में भी कोई तालमेल नहीं था।कई टीम प्रमुखों के बीच अहम के टकराव से मामला उलझ गया।सबसे बड़ी बात यह कि कांग्रेस पार्टी धनाभाव से परेशान थी,जो थोड़ा बहुत पैसा था,वह भी कई उम्मीदवारों तक नहीं पहुंचा।राहुल गांधी करिश्मा,साख और लोगो के साथ संवाद के हुनर के लिहाज से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बराबर नहीं हो पाये हैं।शिवभक्त जनेऊधारी हिन्दू के तौर पर राहुल के उभार ने कांग्रेस को भाजपा की तरह दिखने वाली पार्टी की तरह पेश किया,इसका असर उत्तर प्रदेश,पश्चिम बंगाल और असम सरीखे राज्यो में पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक पर भी पड़ा।इस सबसे भाजपा को हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण का मौका मिला।
      कांग्रेस के पास न तो कोई दूरदृष्टि थी और न ही आपसी तालमेल और वोटरों को जरा भी अंदाज नहीं था कि कांग्रेस किन चीजों के पक्ष में खड़ी है, सिवा इसके कि वह मोदी के खिलाफ है।उसने किसानों के संकट और बेरोजगारी की बात की,मगर उसका घोषणापत्र-जिसकी सबने एक राय से अच्छी तरह तैयार दस्तावेज कहकर तारीफ की-बहुत देर से आया।इसमे बेरोजगारों के लिये सरकारी नौकरियों की और गरीबो तथा परेशानहाल लोगो के लिये न्याय की बात कही गयी थी।मगर इस संदेश को आखिरी वोटर तक ले जाने के लिये पार्टी के पास न वक्त था और न ही उसके नेताओ ने (राहुल गांधी को छोड़कर ) इस विचार के प्रति कोई ज्यादा उत्साह दिखाया।
    चुनावी विश्लेषक मानते हैं कि ऐसे बहुत से कारण बने जिससे कांग्रेस पार्टी  हाशिये पर पहुंच गयी।2019 के आम चुनाव में मिली हार के बाद राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की ओर से उन्हें मनाने की भरपूर कोशिश की गयी लेकिन राहुल गांधी अपने फैसले पर अडिग रहे।
      राहुल गांधी पार्टी में ऊपर से लेकर नीचे तक बदलाव चाहते है,और उन्होंने इस्तीफा देकर इस बात पर जोर दिया कि कांग्रेस को नये सिरे से गढ़े जाने की जरूरत है।कई दिग्गजों का कहना है कि राहुल के इस्तीफे से कांग्रेस टूट जायेगी मगर राहुल के करीबी सहयोगियों का मानना है कि यह कोई आवेग में आकर लिया गया फैसला नही है।बल्कि एक सावधानीपूर्वक और सोच विचारकर उठाया गया राजनैतिक और वैचारिक कदम है।मोदी अपने राजनैतिक आक्रमण में तर्क देते हैं कि गांधी उपनाम होने के कारण राहुल पार्टी अध्यक्ष हैं।लगता है कि राहुल इस बोझ को उतार फेंकना चाहते हैं।
     अब देखना है कि कांग्रेस पार्टी उसके सामने मौजूद संगठन को नये सिरे से खड़ा करने की चुनौती को किस प्रकार हल करती है।पूरे देश मे कमजोर स्थिति का सामना कर रहे कांग्रेस संगठन को फिर से नये सिरे से गढ़कर ही कांग्रेस भविष्य में भाजपा को टक्कर देने लायक स्थिति में आ पायेगी।